प्रिय ...........
प्यार के शाब्दिक अर्थ में
तुम मुझे नहीं पाओगे
विश्वास में पलने वाली मैं,
कब तक आजमाओगे
हंसने-रोने और पाने-खोने से
मैं ऊपर आ गई हूँ
इन सबके सितम से अब
दिल को ना दुखा पाओगे
जिस चिराग से रौशन है
दिल का दरबार मेरा
उम्मीद के इस शम्मा को
हरगिज ना बुझा पाओगे
भले ही याद नहीं तुमको
अपनी ही नूरानी बातें
पर रूह की आवाज़ को
तुम कैसे दबा पाओगे
लौटती हुई सदाएँ मेरी
मेरा एतबार बढ़ा देती हैं
मेरे इस विस्तार को
तुम कैसे घटा पाओगे
फूल-कांटे, शोला औ शबनम में
हर जगह तुमको देखा है
एहसास का समन्दर है यहाँ
कितनी बूंदों को गिन पाओगे......आशा गुप्ता 'आशु'
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