शनिवार, 14 जुलाई 2012

वो नहीं मेरे संग


वो नहीं मेरे संग तो कोई बंदानवाज़ नहीं 

ना रहे तख्तो-ताज, अब वो सरताज नहीं

पुकारते भी हम तो किसे इस सुने जहाँ में 

अब ना पंख, ना आसमा, वो परवाज़ नहीं.......आशु 

अब ना नूर है

अब ना नूर है, ना रंग छलकते है कहीं से
जीस्त हो गई बेनूर बस एक तेरी कमी से 

मुद्दत से सोचते थे हम तो बंज़र से हो गए
सब्ज-सा हुआ है दिले बाग़ दर्द की नमी से 

परवाज़ से बेज़ार परिंदा, धरती से आ लगा
लगते नहीं थे पाँव जिसके कभी इस ज़मी से

जो मेरे फ़साने का अरसे से सिरमौर रहा है
अहसास-ओ-रस्म का तकाजा करते वो हमी से ...... 'आशु'

अश्क मेरे

अपने हाथो में चंद गर्म अश्को को लिए 
मुन्तजिर हैं मेरी आँखे कब से तेरे लिए

उसी वादी में तन्हा आज भी हम बैठे हैं
उठ गए थे तुम जहाँ से, जाने के लिए

जिस अश्को को मोती कहा था तुमने
आज निकले धूल में मिल जाने के लिए

और कब तलक ये हथेली में रह पाएंगे
धूप बैठी है देर से इनको जलाने के लिए

कौन समझेगा ये तेरे अहसास के मोती हैं
ये फकत अश्क है इस बेदर्द ज़माने के लिए

............................आशा गुप्ता 'आशु'