अब ना नूर है, ना रंग छलकते है कहीं से
जीस्त हो गई बेनूर बस एक तेरी कमी से
मुद्दत से सोचते थे हम तो बंज़र से हो गए
सब्ज-सा हुआ है दिले बाग़ दर्द की नमी से
परवाज़ से बेज़ार परिंदा, धरती से आ लगा
लगते नहीं थे पाँव जिसके कभी इस ज़मी से
जो मेरे फ़साने का अरसे से सिरमौर रहा है
अहसास-ओ-रस्म का तकाजा करते वो हमी से ...... 'आशु'
जीस्त हो गई बेनूर बस एक तेरी कमी से
मुद्दत से सोचते थे हम तो बंज़र से हो गए
सब्ज-सा हुआ है दिले बाग़ दर्द की नमी से
परवाज़ से बेज़ार परिंदा, धरती से आ लगा
लगते नहीं थे पाँव जिसके कभी इस ज़मी से
जो मेरे फ़साने का अरसे से सिरमौर रहा है
अहसास-ओ-रस्म का तकाजा करते वो हमी से ...... 'आशु'
1 टिप्पणी:
जीस्त हो गई बेनूर बस एक तेरी कमी से ..........वाह क्या बात है ! एक अजब सा एहसास है आपकी इस बात मे !!
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