अपने हाथो में चंद गर्म अश्को को लिए
मुन्तजिर हैं मेरी आँखे कब से तेरे लिए
उसी वादी में तन्हा आज भी हम बैठे हैं
उठ गए थे तुम जहाँ से, जाने के लिए
जिस अश्को को मोती कहा था तुमने
आज निकले धूल में मिल जाने के लिए
और कब तलक ये हथेली में रह पाएंगे
धूप बैठी है देर से इनको जलाने के लिए
कौन समझेगा ये तेरे अहसास के मोती हैं
ये फकत अश्क है इस बेदर्द ज़माने के लिए
............................आशा गुप्ता 'आशु'
मुन्तजिर हैं मेरी आँखे कब से तेरे लिए
उसी वादी में तन्हा आज भी हम बैठे हैं
उठ गए थे तुम जहाँ से, जाने के लिए
जिस अश्को को मोती कहा था तुमने
आज निकले धूल में मिल जाने के लिए
और कब तलक ये हथेली में रह पाएंगे
धूप बैठी है देर से इनको जलाने के लिए
कौन समझेगा ये तेरे अहसास के मोती हैं
ये फकत अश्क है इस बेदर्द ज़माने के लिए
............................आशा गुप्ता 'आशु'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें